Saturday, August 04, 2012

सिनेमा की बात ही क्‍यों ?

फिल्‍में हमेशा से मेरे दिल के करीब रही हैं. बचपन से ही खेलकूद से ज्‍यादा फिल्‍मों ने मुझे अपनी ओर खींचा है. पता नहीं क्‍या जादू सा होता था टीवी पर फिल्‍म देखते ही. फिर कुछ बड़ा होने पर किताबें पढ़ने का शौक लगा. पर फिल्‍में अभी भी दिमाग पर हावी रहती थीं. और कोई भी अच्‍छी चीज पढ़ते हुए उसे दिमाग खुद-ब-खुद फिल्‍म की शक्‍ल में देखना शुरू कर देता था. इस बीमारी का इलाज अभी भी नहीं हुआ है. शायद कुछ ख्‍यालों को फिल्‍म की शक्‍ल देकर ही हो पाएगा. पर हां, यहां इस ब्‍लॉग को शरू करने का विचार उस समय आया जब मैंने अपने शहर दिल्‍ली में फिल्‍म और सिनेमा को लेकर हिन्‍दी में हो रही पत्रकारिता और लेखन में पाया कि इक्‍का दुक्‍का लोगों को छोड़कर कहीं कुछ मतलब का नहीं लिखा जा रहा है. अच्‍छी फिल्‍में आती हैं और चली जाती हैं. फिल्‍म के दीवानों को कई बार उनकी ख़बर तक नहीं लग पाती. बस, ये ब्‍लॉग इसी दर्द की दवा के रूप में कुछ काम कर सके तो शायद उन फिल्‍मों का कर्ज उतार पाउंगा जो बचपन से मेरी हमजोली रही हैं. अभी इतना ही........

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