पर्दे पर गैंग्स ऑफ
वासेपुर पार्ट 2 एक बार फिर गोलीबारी, गालीबारी, डकैती, बकैती, हरामखोरी, दबंगई और
बदले की आग के नरक से होकर गुजर रही है. फिल्म कहीं पहुंचने की जल्दी में नहीं
है इसलिए लोकल के रफ्तार से हर अहम मोड़ पर रूक कर हमें उससे जोड़कर आगे बढ़ती है.
किरदारों की भीड़ है इसलिए सबको समझना और उनकी दूसरे किरदारों के साथ रंजिशें और
मौहब्बतें भी समझनी जरूरी हैं. पात्रों की इस भीड़ के बीच एक नया नायक जन्म ले
रहा है. नाम है फैज़ल खान (नवाजुद्दीन सिद्धिकी). फैज़ल जो है वह उसने कभी बनना
नहीं चाहा. उसे फैज़ल खान बनाया हालातों ने.
बदले की जो आग अपने
बाप शाहिद खान की मौत के बाद से सरदार खान के दिल में सुलगती थी, सरदार खान की मौत
के बाद उसके बेटे दानिश खान के सीने में जलने लगी और अब दानिश की मौत के बाद फैज़ल
खाने के सीने में. वासेपुर, वहां का माफिया, बदमाशी, रंगदारी, काले धंधे, वासेपुर
के बाशिंदों की जिंदगी, रामाधीर सिंह और सुल्तान सब वही हैं बस बदले की आग शरीर
बदल रही है. और इस बार इस आग ने एक ऐसे शख्स को चुना है जिसके अंदर आग नहीं बल्कि
मोहसिना के लिए मौहब्बत के फूल खिल रहे हैं. बॉलीवुड जिसके भीतर तक घुसा हुआ
है, अमिताभ बच्चन खून में घुल चुका है...और उसके सपनों की दुनियां बहुत रंगीन है. पर सबकी जिंदगी रंगीन नहीं होती ...
कुछ की कोयले सी काली भी होती है. जिंदगी में सब अपने चाहने से कहां होता है? फैजल के साथ भी
नहीं हुआ. हमने फिल्मी पर्दे की मां को अक्सर अपनी औलाद को ख़ून ख़राबे से दूर
रहने की हिदायत देते देखा है पर यहां फैज़ल की मां के ताने ‘फैज़ल, कब खून
खौलेगा रे तेरा, गांजा के नशा में धुत था जब तेरे अब्बू को मार दिया, और अब दिन
दहाड़े भाई को मरवा दिया, तुम्हरे हाथ से कब चलेगा रे गोली....’ ने तय कर
दिया था उसकी जिंदगी का मकसद. और मां को वचन दिया ‘बाप का, दादा का, भाई का.
सबका बदला लेगा तेरा फैज़ल.
साढ़े पांच घंटे के
सफर में (भाग 1 और 2 एक साथ देखने पर) फिल्म जिस नैचुरैलिटी से आगे बढ़ती है हम
भूल जाते हैं कि हम थियेटर में हैं. लगता है कि हम वासेपुर में ही हैं. और फैज़ल
वही सब कर रहा है जो हम उन हालातों में खुद चाहते हैं. जिस ‘तेरी कह के लूंगा’ को
सरदार खान ने शुरू किया फैज़ल ने हर पल जिया. एक बेपरवाह, नशेडी और अपनी ही दुनिया
में मस्त आदमी कैसे माफिया डॉन बनता है ये देखना और समझना अपने आप में एक अनुभव
है. फैज़ल अंदर बाहर से लगातार बदलता है और हमें पता तक नहीं चलता. यह एक अनूठा
सिनेमाई अनुभव है जिसे किरदार के अंदर घुस कर ही महसूस किया सकता है. जिन दृश्यों
में फैज़ल खामोश है वहां उसकी खामोशी उसके संवादों पर भारी पड़ रही है. बोलने के
लिए उसकी आंखें ही काफी है. फिल्म नए नायक की नई परिभाषाऐं गढ़ रही हैं. ये नया
नायक हमारे बौलीवुड के नायकों से अलग एक आम आदमी की तरह बिहेव करता है. जैसे असल
जिंदगी में किसी से बदला लेने के लिए हम सही वक़्त और मौके का इंतजार करते हैं
ठीक वैसे ही फैज़ल करता है. हां, बदला लेने के लिए निकलने से पहले अपनी मां के
माथे को चूम के जाने का अंदाज उसे थोड़ा फिल्मी टच जरूर देता है.
फिल्में फैज़ल खून
में इस कदर घुली हुई हैं कि फजलू का गला रेतने से पहले अपने हालात भी वह फिल्मी
भाषा में बयां करता है. ‘हम तो सोचते थे कि संजीव कुमार के घर में हम बच्चन
पैदा हुए हैं, लेकिन जब आंख खुली तो देखा साला हम तो शशि कपूर हैं. बच्चन तो कोई
और है.’ लकिन ये शशि कपूर अब खलनायक में बदल रहा था. यही वो मोड़ था जहां
फैज़ल, फैज़ल खान बनने लगा. वासेपुर में उसका दबदबा बढ़ने लगा...लोग ड़रने लगे और
लोहे का व्यापार अब उसके हाथ के नीचे था.
पर अभी भी फैज़ल खान
के भीतर मोहसिना का शर्मीला आशिक बाकी है. जो आदमी किसी के भेजे में गोलियां
उतारने से पहले जरा भी नहीं डगमगाता वह मोहसिना से प्रणय निवेदन करते वक़्त
हकलाता है. ये यकीन करना मुश्किल है कि जिस आदमी का राज पूरे वासेपुर पर चलता हो
उसे अपनी प्रेमिका को फिल्म दिखाने के लिए ले जाने में कितनी मां की कसमें खानी
पड़ रही हैं. पर यहां फिल्मी कुछ भी नहीं है. आदमी घर के बाहर कितना भी शेर क्यों
न हो, बीवी या प्रेमिका के सामने वह सिर्फ एक पति या प्रेमी ही होता है.
जिंदगी ने अब तक फैज़ल
खान को इतना तो सिखा ही दिया है कि अब जिंदगी का फलसफा उसकी बातों में झलकने लगा
है. ‘इस धंधे में दो चीजों पर भरोसा नहीं करना चाहिए, एक तो खुद से पैदा होने
वाले खौफ से और दूसरा किसी के साथ से’. फैज़ल खान जितना सहज रामाधीर के सामने
बैठने में है उतना ही सहज किसी को गोली से उड़ाने में भी है. खौफ़ उसके चेहरे पर
ढ़ूंढ़ने से भी नहीं मिलता बल्कि हर पल एक सूफियाना मुस्कुराहट तारी है. खालिद को
गोली मारने से पहले उसका सिर मुंडवाने के बाद हंसते फैज़ल की हंसी को हम क्रूर
नहीं कह पाते. अपने दुश्मन की आखों में आंखें डाल कर फैज़ल उसकी कह कर ही लेता
है.
पर फैज़ल के दिल का कोई कोना कहीं न कहीं अभी भी इस खून खराबे से दूर आम आदमी की तरह सोचता और रिएक्ट करता है. शमशाद आलम की शिकायत पर जेल की सलाखों के पीछे फैज़ल खुद को कमजोर महसूस करता है और मोहसिना का गाना ‘फ्रस्टियाओ नहीं मूरा, नर्वसाओ नहीं मूरा, एनी टाईम मूडवा को... अपसैटाओ नहीं मूरा, जो भी रोगवा है उसे सैट राइटवा करो जी, नहीं लूजिए होप जी थोड़ा फाइटवा करो जी मूरा... फाइटवा करो जी मूरा’ सुनकर सुकून महसूस करता है. फैज़ल खान गिरता है, उठता है, फिर गिरता है और फिर उठता है. यहीं उसका नायकत्व अपने महानतम शिखर को छूता है.
फैज़ल की एक कमजोरी
भी है वह लोगों को पहचानने में अक्सर धोखा खाता है. चाहे फजलू हो, शमशाद आलम हो,
इख़लाख या फिर डेफिनेट हर बार फैज़ल ने धोखा खाया. अब इस फिल्म का नायक
बौलीवुडिया हीरो होता तो कतई धोखा नहीं खाता पर वह तो ठहरा एक साफ दिल आदमी. धोखा
तो तय था. और यही कमजारी उसकी मौत की वजह बनी.
दरअसल हम आम लोग असल
जिंदगी में कहीं न कहीं थोड़े बहुत फैज़ल खान ही हैं. हम सब अपनी जिंदगी में बहुत
कुछ ऐसा करते हैं जो हम कभी नहीं करना चाहते थे. और जब तक इसका अहसास होता है,
बहुत देर हो चुकी होती है. ये अहसास फैज़ल खान को भी हुआ...‘हमें कभी कुछ नहीं
करना था. पता नहीं ये कैसे होता चला गया’. ... ‘हमरे अब्बा के पास मौका था
वासेपुर वापस न आने का... पर वो आये और सब फंसता चला गया’ ‘अब हमें कुछ नहीं
करना....’
पर अभी भी फैज़ल की जिंदगी का मकसद पूरा नहीं हुआ. रामाधीर सिंह
अभी जिंदा है और उसकी हत्या के बिना फैज़ल खान का फैज़ल खान बनना निरूद्देश्य
है. अंतिम दृश्य में वो मंजर भी आता है जब तीन पीढि़यों का दोषी रामाधीर सिंह
फैज़ल खान के सामने टोटल सरेंडर की मुद्रा में है. इसे अनुराग कश्यप के निर्देशन
का जादू ही कहेंगे कि रामाधीर सिंह की हत्या के इस वीभत्स दृश्य को उन्होंने
फैज़ल खान के चेहरे पर सूफियाना मुस्कुराहट के साथ सम्मोहनी बना दिया है.
फैज़ल का मकसद पूरा होते ही उसकी जिंदगी का भी मकसद पूरा हो चला
है, न अब जिंदगी के रंगमंच पर उसकी जरूरत है न वासेपुर में. ये तो पहले से ही
डेफिनेट था कि कोई न कोई एक दिन फैज़ल खान की जगह लेगा, सो डेफिनेट ने ली. इसका
शायद उसे अब कोई मलाल भी नहीं है...अपनी मौत के दृश्य में फैज़ल खान पूरी तरह
शांत है, थोड़ा सा हैरान जरूर है पर जिंदगी की भीख नहीं मांगता, कोई प्रतिक्रिया
नहीं, कोई प्रतिरोध नहीं...बस एक मौन. और रंगमंच से एग्जिट...
फैज़ल की मौत के साथ फिल्म के नायक की कहानी जरूर खत्म हुई है. मगर भारतीय सिनेमा में नए नायक की कहानी अभी शुरू हुई है........
फैज़ल की मौत के साथ फिल्म के नायक की कहानी जरूर खत्म हुई है. मगर भारतीय सिनेमा में नए नायक की कहानी अभी शुरू हुई है........
भाई सौरभ... असली का वास्सेपुर में न तो इतना अँधेरा है न ही इतनी क्रूरता.... एक आम मुसलमानों की बसती है यह... दसो साल... रोज़ गुज़रा हूं इस वास्सेय्पुर.... लेकिन जो चित्रित किया है वह वीभत्स है.... यथार्थवादी कहीं से भी नहीं.... सिनेमेटिक इफेक्ट बढ़िया है...लेकिन सच तो यह बिल्कुल भी नहीं....
ReplyDeleteआपसे कुछ हद तक सहमत हूं. पर फिल्म में जो दिखाया गया है वह वासेपुर की पूरी सच्चाई नहीं है....बस दो गैंग के आपस की रंजिश है. इसमें आम वासेपुरवासी का किसी भी जगह गलत चित्रण नहीं किया गया है. अनुराग खुद मानते हैं कि वासेपुर आज ऐसा नहीं है. असल में जो दिखाया गया है वह लगभग 70-80 वर्ष की कहानी है जो 320 मिनट में एक साथ देखने पर हिंसा के कई दृश्यों के कारण वीभत्स नज़र आती है. और फिर थोड़ी बहुत सिनेमाई स्वतंत्रता तो फिल्मकार को रहती ही है. दूसरे यह कोई डॉक्यूमेंटरी तो थी नहीं, अनुराग इस बार निखालिस कमर्शियल फिल्म के फॉर्मेट पर काम कर रहे थे. खैर मेरा यह लेख फिल्म के सच और झूठ पर नहीं है....मैंने तो महज एक नए नायक को करवट लेते देखा है.
Deleteसौरभ भाई आप तो छुपे रुस्तम निकले.आपकी इस विशेषता से मैं अनजान था.सिनेमा के बारे में मेरी जानकारी ज्यादा नहीं है.पर क्या बढ़िया रिपोर्ट लिखी है आपने.गद्य पर आपका अधिकार लाजवाब है.आप लिखते रहें,हम पढ़ते रहेंगे.
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